बेलहर विधानसभा सीट पर हमेशा बहादुर बनते हैं 'यादव' उम्मीदवार, जातीय राजनीति के सियासी रणक्षेत्र की कहानी

Updated on 12-01-2023 05:47 PM
बांका : बिहार के बांका जिला अंतर्गत आने वाली बेलहर विधानसभा सीट की राजनीतिक कहानी भी जातिगत समीकरण से होकर गुजरती है। बिहार की राजनीति में जाति इतना मायने रखती है कि विकास के मुद्दे पर कोई बात नहीं करता। चुनाव से पहले और चुनाव के बाद वोटर भले चौपाल की बैठकों में विकास और शिक्षा की बात करते हैं। जब वोट देने की बारी आती है, तब उम्मीदवार की जाति की ओर आशा भरी निगाहों से देखते हैं। बेलहर की सियासत को समझने वाले स्थानीय जानकार मानते हैं कि ये सीट यादव बहुल है। उम्मीदवार का यादव होना राजनीतिक रूप से जरूरी है। उम्मीदवार अनपढ़ हो और अपराधी हो, इससे मतदाताओं को मतलब नहीं होता। वोटर सिर्फ जाति देखते हैं और वोट देते हैं। 2015 और 2020 के विधानसभा चुनाव में इस सीट पर किसी फैक्टर ने काम नहीं किया। जानकार मानते हैं कि यहां सिर्फ एक ही फैक्टर चलता है, वो है 'यादव' फैक्टर। यदि उम्मीदवार यादव है, तो उसे चिंता करने की जरूरत नहीं है। वो प्रचार कम भी करेगा, तब भी लोग उसे ही वोट देंगे। आपको बता दें कि बांका जिला अपने पौराणिक मान्यताओं के लिए प्रसिद्ध है। जिले में स्थित मंदार पर्वत से संबंधित एक कथा यह भी है कि देवताओं ने अमृत प्राप्ति के लिए दैत्यों के साथ मंदार पर्वत से ही समुद्र मंथन किया था। वो पर्वत इसी जिले में है।

बीजेपी को कभी नहीं मिली जीत

बेलहर विधानसभा सीट 1962 में वजूद में आई। उसके बाद यहां लगातार चुनाव हुए। पहले चुनाव में जैसा कि विदित है, कांग्रेस के राघवेंद्र सिंह को जीत मिली थी। उसके बाद अगले चुनाव में राघवेंद्र सिंह हार गये, क्योंकि उस वक्त तक यादवों की संख्या बढ़ गई थी और वे अपनी जाति के उम्मीदवार खोजने लगे थे। 1972 में इस सीट पर एक बार फिर कांग्रेस ने वापसी की और शंकुतला देवी विधायक बनीं। 70 के दशक और इमरजेंसी के काल में इस सीट पर कांग्रेस को हार मिली। 1977 में कांग्रेस विरोधी लहर का प्रभाव इस सीट पर भी देखा गया। हालांकि, 1985 में कांग्रेस ने दोबारा वापसी की। कांग्रेस की इस सीट से ये अंतिम विजय रही। 80 के दशक के बाद कांग्रेस का कोई भी इस सीट पर जीतने वाला उम्मीदवार खड़ा नहीं हुआ। राजनीतिक आंकड़े बताते हैं कि राजद की निगाह इस सीट पर साल 2000 में पहली बार गई। लालू यादव ने इस सीट के जातीय समीकरण को समझने के बाद यहां अपने उम्मीदवार को उतारा। ज्यादा प्रचार-प्रसार भी नहीं किया, फिर भी राजद को पहली बार इस सीट से जीत मिली। हालांकि, बिहार में 2005 में नीतीश कुमार की लहर चल रही थी। इस लहर में राजद के उम्मीदवार रामदेव यादव को हार का सामना करना पड़ा। जेडीयू के जनार्दन मांझी ने रामदेव यादव को हरा दिया। उसके बाद यहां हुए 2010 और 2015 के चुनाव में जेडीयू को जीत मिली। गौर करने वाली बात ये होगी कि यहां उम्मीदवारी हमेशा यादवों को मिली।

वोट नहीं जाति मुद्दा है !

2010 और 2015 के चुनाव में गिरधारी यादव जीत हासिल करने में कामयाब हुए। हाल के दिनों में जेडीयू का इस सीट पर कब्जा बनते जा रहा है। अब चूंकी नीतीश कुमार महागठबंधन के साथ हैं। इसलिए इस सीट पर महागठबंधन की दावेदारी मजबूत होती दिख रही है। 2011 के आंकड़े के मुताबिक बेलहर सीट पर जनसंख्या 4 लाख 58 ह जार 604 है। यहां अनुसूचित जाति और जनजाति की जनसंख्या क्रमशः 13.43 फिसदी और 7.79 फीसदी है। 2019 के वोटर लिस्ट के मुताबिक इस विधानसभा क्षेत्र में वोटरों की संख्या 3 लाख 28 हजार 67 है। स्थानीय जानकारों के मुताबिक वर्तमान विधायक मनोज यादव 2015 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की ओर से मैदान में उतरे थे। चूंकी 2015 में नीतीश कुमार महागठबंधन के साथ थे, इसलिए जेडीयू के गिरधारी यादव ने मनोज यादव को मात दे दी। 2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए की सरकार थी, तो मनोज यादव बीजेपी से जेडीयू में चले आये थे। 2020 में मनोज यादव को सफलता मिली। हालांकि, बीच में इस सीट पर एक ट्विस्ट भी देखने को मिला। 2019 के लोकसभा चुनाव में वर्तमान विधायक गिरधारी यादव ने लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत हासिल कर ली। उसके बाद इस सीट पर हुए उपचुनाव में राजद को सफलता मिली। आरजेडी के रामदेव यादव विजयी रहे। रामदेव यादव ने जेडीयू के गिरधारी यादव के भाई लालधारी यादव को हरा दिया।

यादव उम्मीदवारों को मिलती है जीत !

सियासी जानकार मानते हैं कि उम्मीदवार चाहे जेडीयू के रहें या फिर आरजेडी के यादव रहना जरूरी है। इस इलाके में यादवों की संख्या अच्छी खासी है। वे हमेशा अपनी ही जाति के उम्मीदवार को वोट करते हैं। इस बार बिहार में महागठबंधन की सरकार है। यादव समुदाय का उत्साह चरम पर है। जानकारों की मानें, तो महागठबंधन अपने नाम पर किसी को भी खड़ा कर दे तो वो जीत जाएगा, बस नाम के आगे यादव लिखा होना चाहिए। इस इलाके में रोजगार, शिक्षा और मूलभूत सुविधाओं की समस्या ज्यादा है। अस्पताल में ठीक तरह से इलाज नहीं होता। पीने के पानी में अर्सेनिक की मात्रा होती है। इस मुद्दे को कभी भी चुनाव में नहीं उठाया जाता। वोटर सिर्फ और सिर्फ यादव जाति देखते हैं। उसके हिसाब से वोट करते हैं। जब 2020 के चुनाव में रामदेव यादव जेडीयू के खिलाफ खड़े थे। तब जेडीयू के मनोज यादव ने उपचुनाव में विजयी रहे रामदेव यादव को हरा दिया। राजद उम्मीदवार 2020 में उपविजेता बने। 2020 में मनोज यादव को 40.16 फीसदी वोट मिले। आरजेडी के रामदेव यादव को 38.81 प्रतिशत वोट मिले। जानकार इन आंकड़ों को दिखाते हुए कहते हैं कि अब आप ही सोचिये कि इसमें किसी और के लिए जगह कहां से बनती है। हां, यदि यहां ओवैसी के उम्मीदवार खड़े होते हैं, तो महागठबंधन के वोटों में सेंध लग जाएगी।

जातिगत गणित का ख्याल रखना जरूरी !

स्थानीय जानकार बताते हैं कि नीतीश के साथ रहते हुए बीजेपी ने इस सीट की बहुत ज्यादा चिंता नहीं की। हालांकि, स्थानीय बीजेपी कार्यकर्ता हमेशा इस सीट की मांग करते रहे। बीजेपी के स्थानीय नेताओं में भी यादव उम्मीदवार हैं और वो अच्छे से जेडीयू उम्मीदवारों को टक्कर दे सकते हैं। बीजेपी 2025 के विधानसभा चुनाव में यहां से मजबूत यादव उम्मीदवार को खड़ा करने की प्लानिंग में है। बीजेपी ने अभी से अपनी रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है। जानकार बताते हैं कि बीजेपी कैडर बेस पार्टी है। लगातार इलाके में वोटरों को जागरूक करने का काम जारी रहता है। बीजेपी को पता है कि विधानसभा चुनाव में कुल मिलने वाले वोटों का सबसे ज्यादा प्रतिशत यादव उम्मीदवारों को ही मिलता है। इसलिए बीजेपी को यहां अपना उम्मीदवार यादव ही रखना होगा। जानकारों की मानें, तो 2025 के विधानसभा चुनाव में यदि ओवैसी अपना उम्मीदवार खड़ा करते हैं तो यहां की मुस्लिम आबादी राजद के साथ नहीं जाएगी। इस सीट पर निर्णायक भूमिका में भले यादव हों, लेकिन मुस्लिम, राजपूत और रविदास समुदाय को किनारे कर नहीं चला जा सकता है। रविदास और राजपूत के अलावा मुस्लिम भी अच्छी संख्या में हैं। बीजेपी को अपना उम्मीदवार ऐसा चुनना होगा, जिनकी पकड़ यादव के अलावा अन्य जातियों में अच्छी हो। जेडीयू और आरजेडी इस सीट को अपनी परंपरागत सीट मानकर चलते हैं। इस सीट में सेंध लगाने के लिए बीजेपी को जातीय गणित का ख्याल रखना होगा।


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